#मोर्चे पे मोक्ष#
नदी की धार
या फिर गोलियों की बौछार
वो किनारा
झेलता कब तक
टूट कर बह गया
धरती का रक्त था
या चिथड़े हुए सिर से
निकलता ख़ून था
तेज़ बहती ठंडी धार में
सब बह गया
सब धुल गया
शीशम का तना
टूटा था पड़ा
पत्थरों में फँसी
बारूद से लिपटी
एक लाश भी थी
धमाके हुए
चिंगरियाँ उठी
और सब कुछ
भस्म हो गया
अस्थियाँ भी बह गई
निशान सारे मिट गए
और रस्म पूरी हो गई
दफ़्न होने को
एक टुकड़ा भी ना मिला
जिस ज़मीं के आबरू में
लड़ते हुए मरा
अब कौन फिर से
चिता जलाये
अश्रु बहाने
भीड़ जुटाए
विलीन हुआ
अवशेष सरहद पे
मिला मोक्ष मोर्चे पे
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