Thursday, 29 November 2018

# कहीं और...कोई और #

अब ख़ुदा भी समझता नहीं दिल की बात,

दुआ कुछ और करता हूँ,
दवा कुछ और देता है ।
दीया रौशनी का जला, दावत ज़िंदगी को दी,
साँसे किसी और को बख़्शीं,
जला कोई और करता है।

इसी उम्मीद में सफ़र ज़िंदगी का जारी है,

मुझे नहीं तो 'उसे' मंज़िल का पता होगा !
गुम है मेरी तरह वो भी,
बस इल्ज़ाम किसी और पे धरता है ।

उल्फ़त की फ़ितरत भी अजीब बेचैन है,

निगाहे किसी और पे टिकती है,
दिल किसी और को ढूंढ़ता है।

ना जाने ज़माने को किसने ख़बर दी है,

घर किसी और गली में है,
पर ये शख़्स कहीं और रहता है।

2 comments:

  1. उल्फ़त की फ़ितरत भी अजीब बेचैन है,
    निगाहे किसी और पे टिकती है,
    दिल किसी और को ढूंढ़ता है।

    ना जाने ज़माने को किसने ख़बर दी है,
    घर किसी और गली में है,
    पर ये शख़्स कहीं और रहता है।
    वाह प्रिय राजीव , बहुत ही उम्दा लिख रहे हैं आप |सस्नेह शुभकामनायें आज बहुत दिनों के बाद आपकी रचनाएँ पढ़कर बहुत अच्छा लगा | एक वीर सैनिक के भावनाओं से भरे लेखन का ये संसार बहुत अचम्भित करने वाला है |

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