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Sunday 28 October 2018

#संघर्षरत#

हर एक राह से
गुज़रना होगा,
कि किस राह परे
है मंज़िल,
हर विष बूँद को
पीना होगा,
कि किस बूँद 
में छिपा है अमृत ।

अब झुलसे बिना
इस आग में,
निखरने को नहीं
है ज़िंदगी,
अब खोए बिना
स्याह रात में,
दिखने को नहीं
है रौशनी ।

हर रात अब
जागना होगा,
कि कब आ रही
है चाँदनी,
हर धड़कनों को
रोकना होगा,
कि कहाँ गूँज रही
है रागिनी ।

अब पिये बिना
आँसुओं को,
मिलने को नहीं
है ख़ुशी,
अब दफ़नायें बिना
संवेदनाओं को,
आने को नहीं
है हँसी ।

हर ज़िंदगी को
मरना होगा,
कि किस मौत में
छुपा है जीवन,
हर एक नयन
होगा झाँकना,
कि कहाँ तैर रहा
है रुदन

अब तेरे आये बिना
इस संसार,
मिलने को नहीं
है राह,
अब बिना बरसे
नयनों के तेरे,
बुझने को नहीं
है ये आग 


Monday 22 October 2018

# ख़ामोश क़दम लाचार नहीं #

क्षमा करो शर्मिंदा हूँ
कि मरा नहीं, ज़िंदा हूँ
ख़ुद के वज़न को तौलता
गर्दन से लिपटा फंदा हूँ

चालाक नहीं मजबूर था
रिश्तों को समेटना दस्तूर था
तुम्हारी भेदती नज़रों का
थोड़ा लिहाज़ तो ज़रूर था

गुम हुआ नहीं अभी मौजूद हूँ
अपनी आवाज़ के पीछे ख़ुद हूँ
साँसों में गरमाहट, है अभी तक
तू ज़ेहन में है और क्या सबूत दूँ

पहुँचा वहीं, चला था जहाँ से
जलाया जिसे, जला उसी शमा से
अफ़सोस नहीं ख़ाक होने का
जी उठूँगा ख़ुद अपनी दुआ से

हार सही, तिरस्कार नहीं
नज़रों से गिरना स्वीकार नहीं
मंज़िल कब तक चुरायेगी नज़र
ख़ामोश क़दम इतने भी लाचार नहीं




Tuesday 16 October 2018

# नियति #

चलो चले अब यहाँ से 
ये कारवाँ थम सा गया है
किसी और डगर की बाँह पकड़े
निकले फिर से मंज़िल अनजाने

रुक के भला इस बिएबाँ में
कौन चेहरों में शक्लें ढूँढे
चुपचाप निकल चलो यहाँ से
सिर झुकाए आँखें मूँदे

किस मंज़िल जाना है इसे
रास्ते को तो होगी ही ख़बर
मैं भी यही राह पकड़ लेता हूँ
ले जाए मुझे अब चाहे जिधर 

मोड़ों पे मुड़ जायेंगे इसके
मिली जो छाँह रुकेंगे कुछ पल
लक्ष्य प्राप्ति का दायित्व न होगा
न जीत हार को कोई कपट छल

बैठ किनारे लहरों को सवारूँ
या आँहें भर पर्वत निहारूँ
वक़्त की कोई पाबंदी न होगी
काँधे पे डाले हसरतों का बोझ
किसी और की ज़िंदगी ना होगी

चल पड़ूँगा निडर, नियति सहारे
पुकारेगा काल जब बाँहें पसारे 
संग सिर्फ़ मैं होऊँगा और शौक़ मेरे
क्या ख़ूबसूरत नहीं ये दिवास्वप्न मेरे ?












Thursday 11 October 2018

#बातें अभी अधूरी हैं#

कुछ और बचा हो,
तो अभी ही कह डालो,
फिर वक़्त मिले ना मिले,
ज़िंदगी ये रहे ना रहे 

मैं जानता हूँ,
बातें अभी अधूरी हैं 

अभी तो खुलने,
शुरू हीं  हुए है 
यादों के पन्ने,
अभी तो इन पन्नों
के बीच भी,
बहुत कुछ छिपा है,
कुछ सूखे हुए फूल,
कुछ टुकड़े काग़ज़ों के,
कई लकीर पड़े होंगे
बने रंगीन धागों से,
कुछ स्याहियों से उकेरे 
निशान भी होंगे,
कई भूल गए
ऐसे नाम भी होंगे,
कुछ संदेश सा,
महत्वपूर्ण होगा लिखा,
पर अर्थहीन, बेमतलब 
आज के लिए

मैं जानता हूँ,
बातें अभी अधूरी हैं

अभी तो उजाले में ही
खोए हुए हो तुम,
रात तो पूरी बाक़ी है,
अभी तो इनके बीच
कई शामें भी होंगीं,
कुछ ख़्वाब होंगे,
कुछ परछाइयाँ होंगीं,
आज झूठे से जो लग रहे,
वो सचाइयाँ होंगीं,
कई पुकार होंगीं,
जो तेरे लिए थी,
कई शब्द होंगे,
जो मैंने कहे थे,
कुछ क्षण होंगे
जब तू रोई थी,
कई पल होंगे
जब मैं हँसा था

मैं जानता हूँ
बातें अभी अधूरी हैं

अभी तो ज़िंदगी 
की हीं चर्चा है,
फिर मौत की भी बारी है,
अभी तो इनके बीच,
गुज़रना है कितनी साँसों को,
अभी तो कई 
अनदेखे ख़्वाब है,
अनसुलझे सवालों के,
मिलने जवाब हैं,
ना जाने अभी कितनी बार,
गुज़रना है उन्ही राहों से,
ले के सहारा तेरी बाँहों का,
अभी तो दामन में तेरे,
कई फूल हैं गिरने 
कई काँटे हैं उगने,
अभी ही मत चल दो
तुम मुँह मोड़ के 

मैं जानता हूँ
बातें अभी अधूरी हैं



Sunday 7 October 2018

# किसी का दोष नहीं #

तुझसा ना होने का अफ़सोस नहीं
तू क़ातिल है, कोई सरफ़रोश नहीं

नज़रंदाज हो रहे गुनाह तेरे अबतक
बेपरवाह है तू, ज़माना ख़ामोश नहीं 

और दिखा तू ज़ुल्म का जलवा हमें 
बदहवास हुई है आहें, मदहोश नहीं

चीख़ें ख़ुदबख़ुद दब गई टीलों में रेत के
तूफ़ाँ, दरिया, लहरें किसी का दोष नहीं

मज़ा आ रहा देख मंज़र तेरे कारनामों का
खुले राज सभी, आया फिर भी होश नहीं

मुक़र गए ग़वाह सभी, तेरे ज़ुर्म के 
ख़ौफ़ है तेरी हुकूमत का, तू निर्दोष नहीं 

समझ रहा कि दुनिया दामन में है तेरे
परिंदे हैं, रहते किसी के आग़ोश नहीं



Wednesday 3 October 2018

# साथी ज़िंदगी के #

अकेले नहीं आयी
यह ज़िंदगी
साथ है इसके 
और कई 

हँसी है प्रीत है
सुख है गीत है
और साथ में खड़े 
हाँथ बाँधे, नज़रें झुकाए 
है द्वेष, दुःख, आँसू भी 

पर ये तो
प्रतिपल परिवर्तित 
होते हुए, ज़िंदगी से 
कभी दूर तो कभी पास
हैं खड़े रहते

अधीर हुआ मन
बदल लिया तब
दुःख को गीत से
आँसू को प्रीत से
द्वेष को मीत से 
ये कहीं भी, कभी भी
शाश्वत नहीं

पर वो,
साथ जन्मा है जो ज़िंदगी के
अभी तक पास है उसी के
हँसा जब भी ज़ोर से
बीच में ही टोका उसने
आँसुओं को भी
अविरल बहने से रोका उसने

उसकी प्रीत मेरा गीत
हैं बँधे सभी उसी से
कण कण है व्यस्त 
उसी के ख़िदमत में
क्षण क्षण हो रहा व्यतीत
उसी की चाह से
भटक रही है ज़िंदगी
उसी के दिखाए राह में 

वो देन हैं, या फिर
ईश्वर की चूक
ये अंगिनित आँकक्षाएँ 
यह अमिट भूख