Tuesday, 28 August 2018

#बर्फ़ीला अभिमान#

पर्वत शिखर पे, 
गर्वान्वित जमे,
जब चमकते हो
और हँसते हो
मुझ पे,
सोचता हूँ
कि हँसूँगा मैं भी,
ऐसे ही,
जब इसी चमक से
पिघलोगे बहोगे,
गिरोगे मेरे क़दमों में ।

अभिमान है
तुझे आज,
सर्वोच्च बिन्दू पे
स्थापित होने का ।
चकित है तू ,
अपनी चमक से
और मान बैठा है
ख़ुद को 
धरा का सिरमौर ।

आने को है वक़्त,
जानेगा तू सच,
निकलेगा इस भ्रम से,
कि तेरी ख़ासियत 
तेरी जड़ता है,
जहाँ जन्मा था,
आज तक वहीं पड़ा है ।

सर्द निष्ठुर 
तू ऐसा बना,
एक तिनका भी
दामन में न उग सका,
पर्वत की देह से,
सफ़ेद कफ़न सा
बस लिपटा रहा ।

तुझे अपने,
वो आँसू भी 
नहीं दिखते,
जो रिस रहे,
नालों का रूप
धर के,
बेख़बर समीप से,
पुलकित हो रहा,
सिर्फ़ हवाओं को
सर्द कर के

मौक़ा है अभी भी,
छोड़ ऊँचाइयाँ गर्वीली,
ज़मीं से आ मिल जा,
एक पवित्र पावन
गंगा बन जा ।





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