Thursday, 29 November 2018

# कहीं और...कोई और #

अब ख़ुदा भी समझता नहीं दिल की बात,

दुआ कुछ और करता हूँ,
दवा कुछ और देता है ।
दीया रौशनी का जला, दावत ज़िंदगी को दी,
साँसे किसी और को बख़्शीं,
जला कोई और करता है।

इसी उम्मीद में सफ़र ज़िंदगी का जारी है,

मुझे नहीं तो 'उसे' मंज़िल का पता होगा !
गुम है मेरी तरह वो भी,
बस इल्ज़ाम किसी और पे धरता है ।

उल्फ़त की फ़ितरत भी अजीब बेचैन है,

निगाहे किसी और पे टिकती है,
दिल किसी और को ढूंढ़ता है।

ना जाने ज़माने को किसने ख़बर दी है,

घर किसी और गली में है,
पर ये शख़्स कहीं और रहता है।

Wednesday, 21 November 2018

# तमाशबीन #

तमाशबीन बन ये
मुस्कुराते चेहरे,
मेरे गर्दिश का 
जश्न मना रहे

मेरी आँखों में
बसे रहने को,
आतुर थे जो,
आज मेरे साये से 
भाग रहे नज़रें चुराए

वो हैं अभी भूले,
कि मेरे तराशे हुए,
पत्थरों की गर्द,
बेशक़ीमती है 
उनके रत्नो से,
हथेली में ज़ब्त 
पसीने की महक,
खींच लाएगी 
गुमी बूलन्दी सपनों से

जो कल तक था मेरा,
फिर से लौट आएगा,
कोई गुमान नहीं 
यक़ीं का सहारा है,
फिर से मेरी आँखों की चमक,
दिखाएगी राह ज़िंदगी को,
ये ज़िद मेरी है 
और ये साथ तुम्हारा है

ओझल हुए साये को,
धूप सुबह की,
फिर से नए 
आकार देगी,
मेरे भटके हुए 
अंधेरे रास्तों को,
जुगनू तेरे दामन के 
सवाँर देंगे

लौटूँगा मैं बनकर,
फिर से दरवाज़े की दस्तक,
तू इस बार भी खड़ा होगा
तमाशबीन बना,
इंतज़ार में मेरे तत्पर









Wednesday, 14 November 2018

#खेल कठपुतलियों का#

दर्द की 
बौछार को
काग़ज़ों पे 
उतार दो
कुछ तो कहो
कुछ तो लिखो
वेदना को
शब्द से सँवार दो 

समझेगा कौन 
रोएगा कौन
व्यर्थ की इस 
सोच को विराम दो
नासूर न बन 
जाए ये ज़ख़्म
हर ग्लानि अब 
दिल से निकाल दो

जो तुमने किया 
वो वक़्त की पुकार थी
जो तुमसे हुआ 
वो नियति की ही चाल थी
अधिकार से परे 
था सब तेरे
तेरी मौजूदगी 
ईश्वर की ढाल थी

डोर से बँधी 
तेरी पहचान है
तू जीत गया 
तो उसका एहसान है
ये खेल है सारा 
कठपुतलियों का
हारा तो परिणाम 
है तेरी ग़लतियों का

Saturday, 3 November 2018

# अधूरी ज़िंदगी #

ज़माने की झुर्रियों में
उलझी हुई, कहानियाँ कई,
कुछ गुम गई, कुछ सुनी नहीं
कुछ अधूरी रह गई ।

आँगन की जर्जर होती दीवार से,
झाँकती ख़ामोश सुराखे,
गुज़रती सर्द हवा 
समेटती बिसरी हुई दास्ताँ ।

तुम कहाँ हो, हूँ मैं कहाँ 
राफ़्ता नहीं कोई दरमियाँ
नज़रों से ओझल हो चले,
हर मंज़िल हर एक रास्ता ।

तुमसे सुनी थी जो बातें,
जान पड़ता है सिर्फ़ ख़्याल थे,
छुआ था जो तुमने मुझे कभी,
हवा का झोंका था और कुछ भी नहीं ।

ढूँडू कहाँ अब किस तरफ़,
या भूल जाऊँ सब ख़्वाब समझ,
हर दास्ताँ ज़िन्दगी की उलझी हुई,
कुछ गुम गई कुछ सुनी नहीं ।
................................
कुछ रह गईं अधूरी।