Saturday, 3 November 2018

# अधूरी ज़िंदगी #

ज़माने की झुर्रियों में
उलझी हुई, कहानियाँ कई,
कुछ गुम गई, कुछ सुनी नहीं
कुछ अधूरी रह गई ।

आँगन की जर्जर होती दीवार से,
झाँकती ख़ामोश सुराखे,
गुज़रती सर्द हवा 
समेटती बिसरी हुई दास्ताँ ।

तुम कहाँ हो, हूँ मैं कहाँ 
राफ़्ता नहीं कोई दरमियाँ
नज़रों से ओझल हो चले,
हर मंज़िल हर एक रास्ता ।

तुमसे सुनी थी जो बातें,
जान पड़ता है सिर्फ़ ख़्याल थे,
छुआ था जो तुमने मुझे कभी,
हवा का झोंका था और कुछ भी नहीं ।

ढूँडू कहाँ अब किस तरफ़,
या भूल जाऊँ सब ख़्वाब समझ,
हर दास्ताँ ज़िन्दगी की उलझी हुई,
कुछ गुम गई कुछ सुनी नहीं ।
................................
कुछ रह गईं अधूरी।

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