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Wednesday 17 November 2021

 बहुत सोचा करूँ कुछ ऐसा,

ज़माने भर में नाम हो जाए 

राहें थी कई मुश्किलों से भरी,

आसान लगा मुल्क को बदनाम कर आए 


कौन पूछेगा भला,

तिरंगा कंधों से होगा जो लगा 

तलवों से कुचल लगा दूँ आग इसे,

कारनामे की चर्चा सरेआम हो जाए


कचहरी पे कसूँगा फबतियाँ,

दूँगा फ़ौज को रोज़ गालियाँ,

खाने के लाले अब तक थे पड़े,

ज़िंदगी शायद अब आसान हो जाए!!

Wednesday 27 October 2021

 पापा अब नहीं रहे,

न दिखेगा कभी फिर से

वो चमकता चेहरा,

आवाज़ की वैसी बुलंदी

अब न कहीं सुनाई देगी।


हर रोज सुबह

टहलते हुए,

अब भला फ़ोन 

करूँगा किसे ?


ज़िंदगी की सारी कश्मकश,

सिमट गई बेजान तस्वीर में,

सारे हिसाब किताब,

डायरी में रह गए लिखे।


कितनी ज़मीन कितनी रशीदें,

जद्दोजहद से समेटीं हुई

और रखी हुई क़रीने से,

सब छोड़ यहीं,

ख़ामोश हो चल दिए।


किसको दिया, कितना दिया

कब कब, क्या क्या, किससे कहा,

सब रह गया धरा का धरा 

आँखों के सामने ही हुए,

आग राख धुआँ हवा ।


गाँव खलियान बाग़ बग़ीचे,

कुछ मायने नहीं अब उनके लिए,

जो नींव रखी, जो सपने सँजोए

क्या ही देखेंगे उन्हें, पूरे होते हुए।


वर्तमान से संतुष्ट 

भविष्य से निश्चिन्त

जो बीत गया जो नहीं मिला

उसका उन्हें ग़म कभी ना रहा


पर वो ग़म, जो छोड़ गए,

हम सब के लिए,

कैसे भुलाए ?

दिन गुज़रता है 

यही सोचते हुए।


मुझे सुननी है,

आवाज़ वो फिर से,

खनकती हुई, दूर करती,

बादल सारी चिंताओं के,

देखना है वो चमकता चेहरा,

आँखों के सामने से गुज़रता हुआ।


दिल को भी है यही यक़ीं,

मौजूद हैं वो यहीं कहीं,

निगाहें हम पर ही है उनकी,

बस नज़रों से वो दिखते नहीं।

Thursday 5 August 2021

 #बाज़ार#

सब कुछ यहाँ,

आज बिका है ।

जिस्म बिकी है,

जान बिका है ।

तेरे साथ मेरा भी,

ईमान बिका है ।


ईश्वर का ,

प्रसाद बिका है ।

माँ का भी,

आशीर्वाद बिका है ।

आँसू भी अब पूछ रहे,

अब कौन सा,

तेरा अरमान बिका है ।


सपनों का ,

बाज़ार लगा है ।

ख़्वाबों का,

व्यापार हुआ है ।

जो चाहत तेरी,

वो मुझे मिला ।

जो तुझे मिला,

वो मुझसे है छिना ।

अदलाबदली खेलो का खेला,

जब ख़त्म हुआ,

मैं फिर से अकेला ।


सरपट सरपट ,

दौड़ चली है ।

ज़िंदगी भी,

कैसी मनचली है ।

रुकने को कहूँ,

तो उड़ जाती है ।

सपने जो देखूँ ,

तो सो जाती है । 

उस से मेरी,

अब ना बन पाएगी,

चंचल है,

ज़रूर छलेगी ।

मंज़िल का ठिकाना,

हो और कही,

वो तो अपने ही,

राह चलेगी ।















Thursday 18 March 2021

#कश्मीर#

 #कश्मीर#


पोपलर के पेड़ से पनपती,

पहले प्यार सी पत्तियाँ ।

चिनार फैलाए बाँह,

ढकती सारी आपत्तियाँ ।


बर्फ़ की चादर में लिपटी,

कांगड़ी की ताप में तपती,

विस्तता* के विस्तार में,

सिमटी अनगिनत जिंदगियाँ ।


फैली मख़मली घांस हरी,

ग़लीचे से वादियों को ढकी,

चश्मों से झरती धार सफ़ेद,

बहा ले जाती सारी विपत्तियाँ ।


बाग़ थे बहार थी,

रेशम के धागों को बुनने,

ऊँगलियाँ तैयार थी।

होंठ थे गुनगुनाते,

कहानियाँ प्यार की,

उलझते ज़ुल्फ़ बयां करते,

अठखेलियाँ बयार की ।


उन्ही हाथों में अब,

मौत का सामान है,

नज़र उगलते ज़हर,

जुबाँ पे क़त्ल का पैग़ाम है ।


मंदिर की घंटियां चुपचाप हैं,

सीढ़ियाँ, सुनसान है शमशान सी

मस्जिदों की मीनारों से गूँजती,

कुछ तल्ख़ है आवाज़ अज़ान की ।


सूफ़ियाना गीत ग़ज़ले,

हैं दर बदर हैरान सी,

वाहबियों के बीच कश्मिरियत,

कराहती बेज़ान सी ।


अब काफ़िर क़रार हो चली,

पीर की मज़ार भी,

राँझे को नगुज़वार है,

हीर की ग़ुहार भी ।


इंतहा अब कहीं भी नहीं,

तेरे, मेरे, सबके सब्र की।

केसर की मेढ़े क़तार में,

अब  दिखती हैं क़ब्र सी ।


निगाहें ढूँढती है आज़ादी,

किनारों से हिजाब के ।

बोल होंठों से निकलते,

अब तौल के हिसाब से ।


ज़िहादी हो चली ज़िंदगी अब,

सुकून की तलाश में ।

मेरी कैफ़ियत संग है बची,

सिर्फ़ ज़ुनून बिखरती साँस में ।


कहीं से फिर लौट आएगा,

बहारों का वो कारवाँ ।

बुदबुदा रहीं है अब तक

धड़कने इसी आस में ।


*झेलम नदी*












Wednesday 17 February 2021

किस चिराग़ को आँधी से वफ़ा चाहिए


प्यार करने का जुर्म किया है मैंने,

अब दिल टूटने की सज़ा चाहिए ।

यह  ज़िंदगी जी ली है  ख़ूब मैंने,

अब मौत आए ऐसी दुआ चाहिए ।


चौंधिया गई है आँखें इस रौशनी में,

अब  रात  हो  तो कुछ सुकून मिले ।

लगता है नये ज़ख़्मों का दौर बीत चुका है,

अब पुराने दर्द उठे ऐसी दवा चाहिए ।


यक़ीं नहीं तेरा ग़म मुझे अब भी है ,

कि अपने रोने पे अब आती है हँसी ।

हर जोड़ तो बन्धनों का खुल चुका है,

अब किस चिराग़ को आँधी से वफ़ा चाहिए ।


ये यादें बड़ी ज़ालिम है जाती ही नहीं,

कि क़ब्र खोदूँ और दफ़ना दूँ इन्हें यहीं ।

जमा हो गये हैं कई दर्द इस सीने में,

अब तो ख़ुद के लुटने का मज़ा चाहिए ।


हर शाम की तरह यह शाम भी उदास है,

अब कौन मनाये इस नासमझ रूठे को ।

बढ़ते हैं क़दम कि ख़त्म कर दूँ मैं सब कुछ, 

पर इस बार भी मुझे तेरी रजा चाहिए ।