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मेरा नाम कभी मिटा नहीं,
मेरी कहानियाँ मशहूर थी।
यादों का जो सिलसिला था,
वो पीढ़ियों का ग़ुरूर थी ।
जो फ़क़्र था एक हिस्से का,
सबके ह्रदय का मीत था।
लक्ष्य पाया किसी एक ने ,
सब का वो आशीष था।
जज़्बा और जूनून था वो,
जिस बल कभी लड़ा करते थे।
ना होंगे हम तो होगा देश,
यही सोच वार सहा करते थे।
हिसाब नमक का चुकेगा कैसे?
सिर्फ़ चार वर्ष की ख़िदमत में!
सूरत सीरत जाने बिना,
दीवाना हुआ कौन उल्फ़त में?
क्या ही चुकाए जाएँगे,
काँधे जब क़र्ज़ ना होगा।
काम तो होगा बेइंतहा,
पर ज़नूने फ़र्ज़ ना होगा।
लड़ेंगे और मरेंगे फिर भी,
हर जवानी का ये दस्तूर है।
मेरी आँखें शायद नम ना होंगी,
यह फ़िक्र तो ज़रूर है।
लड़ते थे जिस निशान के लिए,
वो निशान हमारा जला दिया।
अग्निपथ के शोलों ने,
पहचान हमारी मिटा दिया।
वतन के लिए चार पल ही जिए,
सदियों याद फ़साने रहते थे।
उनकी मौत के बाद ज़िंदगियाँ,
अब वर्ष सिर्फ़ चार, जिया करते है
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 22 जून 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
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पुन: भेंट होगी..