Thursday, 7 July 2022

कारगिल


इक्कीस का था 

जब बर्फ़ीली पहाड़ियों पे,

चढ़ गया सिर्फ़ ये पुकारते,

दिल को अभी और 

बहुत कुछ चाहिए।


तुमने कहा था बैठे बैठे,

बुख़ारी की गरमी ओढ़ते हुए,

कोई नहीं है वहाँ

सिर्फ़ पत्थरों के ढेर के।


यूँ तो पता था मुझे,

बिना पलकों को झुकाये

तुम झूठ बोल रहे,

वहाँ मेरी राह रोकने को

घुसपैठिए थे मशीनगन लिए।


गया मैं फिर भी,

तुम्हारे आदेश पे नहीं,

ख़ुद के जुनून और इश्क़ के लिए,

नाम के लिए अपने पूर्वजों के,

वतन का नमक, निशाने पलटन के लिए


आया नहीं फिर मैं लौट के,

आख़िरी शब्द आए चिट्ठी में लिखे,

कटे हाथ कुचला हुआ माथा

बोरी में बंद आया मिट्टी बन के।

..........


जीता तो आज चालीस का होता,

बैसाखियों के बल चलता,

अपाहिज बन फजियत से,

सौ बार रोज़ मरता।


बीहड़ पहाड़ियों से ज़िंदा उतर,

जो आ जाता चमकीले शहर,

दो निवाले पे भी तंज कसे जाते,

'तुम तो राशन के दाम भी नहीं चुकाते'।


शर्म सी आती सेवनिवृत्ति के पैसे माँगते हुए,

जिसकी छाती ने सरहद पे झेली गोलियाँ,

उसी की पीठ का,

जंतर मंतर पे लाठियाँ खाते हुए ।


जब देखता हूँ

बादलों के बीच से,

अपनो को ही, अपनो का

मौखोल उड़ाते हुए,

एक अदद पद, एक विदेश भ्रमण,

एक और तरक़्क़ी के लिए,

सिर झुकाए गिड़गिड़ाते हुए।


शुक्रगुज़ार होता हूँ

स्टील के उस छर्रे का,

जिसने मुझे शहीद कर दिया ।


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