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Sunday 2 September 2018

#ख़ुद देख लो आ कर#

मैं कैसे गिनाऊँ
उन पलों को
जिनमें तुम्हें
देखता रहा, अपलक
चाँद के फ़लक पर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
धड़क रहे हैं
अभी भी वो पल
सितारे बन कर

मैं कैसे कहूँ
तेरी याद में
इन आँसुओं ने
कितने शाम मेरे
धुँधले कर दिए
रख दिया कितनी
रातों को भिगो कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
चमक रहे हैं
अभी भी वे आँसू
शबनम बन कर

मैं कैसे बताऊँ
कि तनहाइयों में
भटका ढूँढने को तुझे
किस क़दर
कभी चुप सा
मन हो जाता 
कभी चिल्लाता 
इन विरानियों में
तेरा नाम ले कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद सुन लो आ कर
सदा गूँज रही
मेरी आज भी
ख़ामोशियों से टकराकर

मैं कैसे दिखाऊँ
दर्द अपने
जो तेरी 
बेरुख़ी ने दिए
वक़्त की गर्द में
दफ़नाना चाहा 
जब भी उन्हें
गुज़रती हवाओं ने
रख दिए कुरेद कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
रिस रहे हैं
आज भी वो ज़ख़्म
नासूर बन कर

मैं कैसे तोड़ूँ
वो क़समें तेरी
बँधी है जिससे 
ये ज़ुबा मेरी
सुनाऊँ किस तरह 
आवाज़ उन
बेड़ियों की
रख दिए है जिसने
मेरे क़दमों को
जकड़कर 
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
गड़ी हैं आज भी
पाबंदियाँ वे
दिल की ताबूत में 
कील बन कर





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