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Tuesday, 16 October 2018

# नियति #

चलो चले अब यहाँ से 
ये कारवाँ थम सा गया है
किसी और डगर की बाँह पकड़े
निकले फिर से मंज़िल अनजाने

रुक के भला इस बिएबाँ में
कौन चेहरों में शक्लें ढूँढे
चुपचाप निकल चलो यहाँ से
सिर झुकाए आँखें मूँदे

किस मंज़िल जाना है इसे
रास्ते को तो होगी ही ख़बर
मैं भी यही राह पकड़ लेता हूँ
ले जाए मुझे अब चाहे जिधर 

मोड़ों पे मुड़ जायेंगे इसके
मिली जो छाँह रुकेंगे कुछ पल
लक्ष्य प्राप्ति का दायित्व न होगा
न जीत हार को कोई कपट छल

बैठ किनारे लहरों को सवारूँ
या आँहें भर पर्वत निहारूँ
वक़्त की कोई पाबंदी न होगी
काँधे पे डाले हसरतों का बोझ
किसी और की ज़िंदगी ना होगी

चल पड़ूँगा निडर, नियति सहारे
पुकारेगा काल जब बाँहें पसारे 
संग सिर्फ़ मैं होऊँगा और शौक़ मेरे
क्या ख़ूबसूरत नहीं ये दिवास्वप्न मेरे ?












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