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Wednesday, 14 November 2018

#खेल कठपुतलियों का#

दर्द की 
बौछार को
काग़ज़ों पे 
उतार दो
कुछ तो कहो
कुछ तो लिखो
वेदना को
शब्द से सँवार दो 

समझेगा कौन 
रोएगा कौन
व्यर्थ की इस 
सोच को विराम दो
नासूर न बन 
जाए ये ज़ख़्म
हर ग्लानि अब 
दिल से निकाल दो

जो तुमने किया 
वो वक़्त की पुकार थी
जो तुमसे हुआ 
वो नियति की ही चाल थी
अधिकार से परे 
था सब तेरे
तेरी मौजूदगी 
ईश्वर की ढाल थी

डोर से बँधी 
तेरी पहचान है
तू जीत गया 
तो उसका एहसान है
ये खेल है सारा 
कठपुतलियों का
हारा तो परिणाम 
है तेरी ग़लतियों का

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