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Monday, 22 April 2019

#पिता-सुता#

क्यूँ उसके 
युवा यक़ीन को,
अपने अनुभवों से
मात दूँ,
उसके सच की उम्र,
ज़्यादा बची नहीं अब,
पर ख़ुद को फुसलाते,
लगता है कुछ दूर
और साथ दूँ

मेरा अक़्स 
दिखता है उसमें,
जब भी बोलती है 
वह तान भवें,
गर्दन की अकड़न
भी ठीक वैसी ही है,
अभी आदर्श उसके
मिलावटी नहीं हुए

डरता हूँ 
उस दिन से,
जब लगेगी 
पहली ठोकर,
क्या संभल पायेगी 
वो ख़ुद से,
या गिर पड़ेगी 
लड़खड़ाकर

समझ में आता नहीं,
छोड़ूँ हाथ उसका
किस मुक़ाम पर
या साथ चलता रहूँ
शाम के साये की तरह,
छुप छुपाकर

मेरा अंश है वो,
उसकी आशाओं का
ध्वंस नहीं देख सकता,
पिता हूँ,
सुता के ख़ातिर

मैं तटस्थ नहीं रह सकता

5 comments:

  1. समझ में आता नहीं,
    छोड़ूँ हाथ उसका
    किस मुक़ाम पर
    या साथ चलता रहूँ
    शाम के साये की तरह,
    छुप छुपाकर ।

    मेरा अंश है वो,
    उसकी आशाओं का
    ध्वंस नहीं देख सकता,
    पिता हूँ,
    सुता के ख़ातिर

    सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  2. बहुत सुंदर रचना

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  3. हर पिता की सोच... लेकिन उसका साथ देने की बजाय उसे जीवन की अच्छाइयों से परिचित कराना है... ताकि वो समझ सके कि जो उन मानदण्डों पर खरा न उतरे वह करने योग्य कार्य नहीं, बनाने योग्य मित्र नहीं, गमन योग्य पथ नहीं... फिर हाथ पकड़े रखने की भी आवश्यकता नहीं, अन्यथा उसके पंगु हो जाने का भय है!!

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  4. समझ में आता नहीं,
    छोड़ूँ हाथ उसका
    किस मुक़ाम पर

    किसी न किसी मुकाम पर हाथ तो छोडना ही होगा
    बहुत सुन्दर भाव की रचना

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  5. सच कहूं तो ये रचना मन को भावुक कर गयी | एक पिता जाने कितने चिन्तनों से गुजरता है अपनी बिटिया के लिए | अंतिम पंक्तियाँ तो मन भारी कर गई| सस्नेह --

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