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Tuesday, 14 November 2023


मैं अकेला तुम अकेले


मैं हूं जब तक

है तभी तक

ये हसीन दुनिया

मरने के बाद

वादा रहा

इसे देखने ना आऊंगा


सांसे है जब तक

है तभी तक

इन हवाओं में मेरी चर्चा

जब मैं ही नहीं

किसे याद रहेगा

मेरा अफसाना


चलो छोड़ो ये किस्सा

फिर से वो खेल खेले

जहां तुम्हीं थे हारे

तुम्हीं थे जीते


जब तक रवानगी रही नसो में 

वह खेल चला

फिर किसे याद रहा

कौन था जीता

कौन था हारा


चलो छोड़ो ये किस्सा

फिर से वो खेल खेले

मैं अकेला

तुम अकेले

Saturday, 21 October 2023

 ख़ामोशियों  का शोर 


ख़ामोशियों  ने  शोर  कर  रखा  है 

अंधेरों  ने  भोर  कर  रखा  है 

टूट  के  बिखर  जाता  मैं  कब  का 

रुसवाइयों  ने  दिल  जोड़ कर  रखा  है 


मजबूरियों  को  तो  छोड़  दिया  कब  के 

चाहतों  ने  कमजोर  कर  रखा  है 

ख्वाब  मुझे  सोने  नहीं  देते  और 

हकीकतों  ने  मदहोश  कर  रखा  है 


दुश्मनों  में  कहाँ  इतनी  संजीदिगी  

अपनों  ने  सितम बेजोड़ कर रखा है 

दवाओं  से जख्म  हरे  हुए  जाते  है  

और दवाओं  ने  बेहोश कर रखा है 


फ़क़त खुद  से  खुद  की  पर्दादारी है 

वैसे  तमाशा तो अब हर और हो रखा  है 

ज़िन्दगी  मुँह  छुपाती फिर  रही  यंहा  

कातिलों ने खुद को सरफ़रोश कर रखा है 

Thursday, 7 July 2022

कारगिल


इक्कीस का था 

जब बर्फ़ीली पहाड़ियों पे,

चढ़ गया सिर्फ़ ये पुकारते,

दिल को अभी और 

बहुत कुछ चाहिए।


तुमने कहा था बैठे बैठे,

बुख़ारी की गरमी ओढ़ते हुए,

कोई नहीं है वहाँ

सिर्फ़ पत्थरों के ढेर के।


यूँ तो पता था मुझे,

बिना पलकों को झुकाये

तुम झूठ बोल रहे,

वहाँ मेरी राह रोकने को

घुसपैठिए थे मशीनगन लिए।


गया मैं फिर भी,

तुम्हारे आदेश पे नहीं,

ख़ुद के जुनून और इश्क़ के लिए,

नाम के लिए अपने पूर्वजों के,

वतन का नमक, निशाने पलटन के लिए


आया नहीं फिर मैं लौट के,

आख़िरी शब्द आए चिट्ठी में लिखे,

कटे हाथ कुचला हुआ माथा

बोरी में बंद आया मिट्टी बन के।

..........


जीता तो आज चालीस का होता,

बैसाखियों के बल चलता,

अपाहिज बन फजियत से,

सौ बार रोज़ मरता।


बीहड़ पहाड़ियों से ज़िंदा उतर,

जो आ जाता चमकीले शहर,

दो निवाले पे भी तंज कसे जाते,

'तुम तो राशन के दाम भी नहीं चुकाते'।


शर्म सी आती सेवनिवृत्ति के पैसे माँगते हुए,

जिसकी छाती ने सरहद पे झेली गोलियाँ,

उसी की पीठ का,

जंतर मंतर पे लाठियाँ खाते हुए ।


जब देखता हूँ

बादलों के बीच से,

अपनो को ही, अपनो का

मौखोल उड़ाते हुए,

एक अदद पद, एक विदेश भ्रमण,

एक और तरक़्क़ी के लिए,

सिर झुकाए गिड़गिड़ाते हुए।


शुक्रगुज़ार होता हूँ

स्टील के उस छर्रे का,

जिसने मुझे शहीद कर दिया ।


Tuesday, 21 June 2022

पलटन: नाम, नमक और निशान 
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 मेरा नाम कभी मिटा नहीं, 
मेरी कहानियाँ मशहूर थी।
 यादों का जो सिलसिला था,
 वो पीढ़ियों का ग़ुरूर थी ।

जो फ़क़्र था एक हिस्से का, 
सबके ह्रदय का मीत था।
लक्ष्य पाया किसी एक ने ,
सब का वो आशीष था। 
 
जज़्बा और जूनून था वो, 
जिस बल कभी लड़ा करते थे।
ना होंगे हम तो होगा देश, 
यही सोच वार सहा करते थे।

हिसाब नमक का चुकेगा कैसे?
सिर्फ़ चार वर्ष की ख़िदमत में! 
सूरत सीरत जाने बिना, 
दीवाना हुआ कौन उल्फ़त में? 

क्या ही चुकाए जाएँगे, 
काँधे जब क़र्ज़ ना होगा। 
काम तो होगा बेइंतहा, 
पर ज़नूने फ़र्ज़ ना होगा। 

लड़ेंगे और मरेंगे फिर भी, 
हर जवानी का ये दस्तूर है। 
मेरी आँखें शायद नम ना होंगी, 
यह फ़िक्र तो ज़रूर है। 

लड़ते थे जिस निशान के लिए, 
वो निशान हमारा जला दिया। 
अग्निपथ के शोलों ने, 
पहचान हमारी मिटा दिया। 

वतन के लिए चार पल ही जिए, 
सदियों याद फ़साने रहते थे। 
उनकी मौत के बाद ज़िंदगियाँ,
अब वर्ष सिर्फ़ चार, जिया करते है

Wednesday, 17 November 2021

 बहुत सोचा करूँ कुछ ऐसा,

ज़माने भर में नाम हो जाए 

राहें थी कई मुश्किलों से भरी,

आसान लगा मुल्क को बदनाम कर आए 


कौन पूछेगा भला,

तिरंगा कंधों से होगा जो लगा 

तलवों से कुचल लगा दूँ आग इसे,

कारनामे की चर्चा सरेआम हो जाए


कचहरी पे कसूँगा फबतियाँ,

दूँगा फ़ौज को रोज़ गालियाँ,

खाने के लाले अब तक थे पड़े,

ज़िंदगी शायद अब आसान हो जाए!!

Wednesday, 27 October 2021

 पापा अब नहीं रहे,

न दिखेगा कभी फिर से

वो चमकता चेहरा,

आवाज़ की वैसी बुलंदी

अब न कहीं सुनाई देगी।


हर रोज सुबह

टहलते हुए,

अब भला फ़ोन 

करूँगा किसे ?


ज़िंदगी की सारी कश्मकश,

सिमट गई बेजान तस्वीर में,

सारे हिसाब किताब,

डायरी में रह गए लिखे।


कितनी ज़मीन कितनी रशीदें,

जद्दोजहद से समेटीं हुई

और रखी हुई क़रीने से,

सब छोड़ यहीं,

ख़ामोश हो चल दिए।


किसको दिया, कितना दिया

कब कब, क्या क्या, किससे कहा,

सब रह गया धरा का धरा 

आँखों के सामने ही हुए,

आग राख धुआँ हवा ।


गाँव खलियान बाग़ बग़ीचे,

कुछ मायने नहीं अब उनके लिए,

जो नींव रखी, जो सपने सँजोए

क्या ही देखेंगे उन्हें, पूरे होते हुए।


वर्तमान से संतुष्ट 

भविष्य से निश्चिन्त

जो बीत गया जो नहीं मिला

उसका उन्हें ग़म कभी ना रहा


पर वो ग़म, जो छोड़ गए,

हम सब के लिए,

कैसे भुलाए ?

दिन गुज़रता है 

यही सोचते हुए।


मुझे सुननी है,

आवाज़ वो फिर से,

खनकती हुई, दूर करती,

बादल सारी चिंताओं के,

देखना है वो चमकता चेहरा,

आँखों के सामने से गुज़रता हुआ।


दिल को भी है यही यक़ीं,

मौजूद हैं वो यहीं कहीं,

निगाहें हम पर ही है उनकी,

बस नज़रों से वो दिखते नहीं।

Thursday, 5 August 2021

 #बाज़ार#

सब कुछ यहाँ,

आज बिका है ।

जिस्म बिकी है,

जान बिका है ।

तेरे साथ मेरा भी,

ईमान बिका है ।


ईश्वर का ,

प्रसाद बिका है ।

माँ का भी,

आशीर्वाद बिका है ।

आँसू भी अब पूछ रहे,

अब कौन सा,

तेरा अरमान बिका है ।


सपनों का ,

बाज़ार लगा है ।

ख़्वाबों का,

व्यापार हुआ है ।

जो चाहत तेरी,

वो मुझे मिला ।

जो तुझे मिला,

वो मुझसे है छिना ।

अदलाबदली खेलो का खेला,

जब ख़त्म हुआ,

मैं फिर से अकेला ।


सरपट सरपट ,

दौड़ चली है ।

ज़िंदगी भी,

कैसी मनचली है ।

रुकने को कहूँ,

तो उड़ जाती है ।

सपने जो देखूँ ,

तो सो जाती है । 

उस से मेरी,

अब ना बन पाएगी,

चंचल है,

ज़रूर छलेगी ।

मंज़िल का ठिकाना,

हो और कही,

वो तो अपने ही,

राह चलेगी ।















Thursday, 18 March 2021

#कश्मीर#

 #कश्मीर#


पोपलर के पेड़ से पनपती,

पहले प्यार सी पत्तियाँ ।

चिनार फैलाए बाँह,

ढकती सारी आपत्तियाँ ।


बर्फ़ की चादर में लिपटी,

कांगड़ी की ताप में तपती,

विस्तता* के विस्तार में,

सिमटी अनगिनत जिंदगियाँ ।


फैली मख़मली घांस हरी,

ग़लीचे से वादियों को ढकी,

चश्मों से झरती धार सफ़ेद,

बहा ले जाती सारी विपत्तियाँ ।


बाग़ थे बहार थी,

रेशम के धागों को बुनने,

ऊँगलियाँ तैयार थी।

होंठ थे गुनगुनाते,

कहानियाँ प्यार की,

उलझते ज़ुल्फ़ बयां करते,

अठखेलियाँ बयार की ।


उन्ही हाथों में अब,

मौत का सामान है,

नज़र उगलते ज़हर,

जुबाँ पे क़त्ल का पैग़ाम है ।


मंदिर की घंटियां चुपचाप हैं,

सीढ़ियाँ, सुनसान है शमशान सी

मस्जिदों की मीनारों से गूँजती,

कुछ तल्ख़ है आवाज़ अज़ान की ।


सूफ़ियाना गीत ग़ज़ले,

हैं दर बदर हैरान सी,

वाहबियों के बीच कश्मिरियत,

कराहती बेज़ान सी ।


अब काफ़िर क़रार हो चली,

पीर की मज़ार भी,

राँझे को नगुज़वार है,

हीर की ग़ुहार भी ।


इंतहा अब कहीं भी नहीं,

तेरे, मेरे, सबके सब्र की।

केसर की मेढ़े क़तार में,

अब  दिखती हैं क़ब्र सी ।


निगाहें ढूँढती है आज़ादी,

किनारों से हिजाब के ।

बोल होंठों से निकलते,

अब तौल के हिसाब से ।


ज़िहादी हो चली ज़िंदगी अब,

सुकून की तलाश में ।

मेरी कैफ़ियत संग है बची,

सिर्फ़ ज़ुनून बिखरती साँस में ।


कहीं से फिर लौट आएगा,

बहारों का वो कारवाँ ।

बुदबुदा रहीं है अब तक

धड़कने इसी आस में ।


*झेलम नदी*












Wednesday, 17 February 2021

किस चिराग़ को आँधी से वफ़ा चाहिए


प्यार करने का जुर्म किया है मैंने,

अब दिल टूटने की सज़ा चाहिए ।

यह  ज़िंदगी जी ली है  ख़ूब मैंने,

अब मौत आए ऐसी दुआ चाहिए ।


चौंधिया गई है आँखें इस रौशनी में,

अब  रात  हो  तो कुछ सुकून मिले ।

लगता है नये ज़ख़्मों का दौर बीत चुका है,

अब पुराने दर्द उठे ऐसी दवा चाहिए ।


यक़ीं नहीं तेरा ग़म मुझे अब भी है ,

कि अपने रोने पे अब आती है हँसी ।

हर जोड़ तो बन्धनों का खुल चुका है,

अब किस चिराग़ को आँधी से वफ़ा चाहिए ।


ये यादें बड़ी ज़ालिम है जाती ही नहीं,

कि क़ब्र खोदूँ और दफ़ना दूँ इन्हें यहीं ।

जमा हो गये हैं कई दर्द इस सीने में,

अब तो ख़ुद के लुटने का मज़ा चाहिए ।


हर शाम की तरह यह शाम भी उदास है,

अब कौन मनाये इस नासमझ रूठे को ।

बढ़ते हैं क़दम कि ख़त्म कर दूँ मैं सब कुछ, 

पर इस बार भी मुझे तेरी रजा चाहिए ।

Wednesday, 18 November 2020

बेखबर दरबदर

 सरहद पे खड़ा

ढूँढता हूँ वतन मेरा

फेरूँ नज़र जिस तरफ़ भी

उजड़ा पड़ा है

चमन मेरा


मर के भी न मिली

मिल्कियत ज़मीं की

इस ओर रूह 

उस तरफ़ जिस्म

दफ़न है मेरा


सफ़ेद कफ़न में लिपटी

लाश मेरी

जर्द आँखों से

दुआ माँग रही...


गर काग़ज़ों की क़िल्लत

स्याही का सूखा पड़ा है

मेरे लहू से ही मुर्दा जिस्म पे

लिख दो फ़रमाने अमन मेरा


जला दो यहीं

सूखी पत्तियों टहनियों से

गर ख़ाके क़ब्र नहीं

नसीब मेरे....


हक़ था मेरा भी

इस जमी के टुकड़े पे

टूट जाए अब 

यह भी भरम मेरा 














Tuesday, 3 December 2019

#कमबख़्त बेपरवाह हो गई है#

मिली क्या मौत से ज़िंदगी एक़बार
बड़ी बेख़ौफ़ बेबाक़ हो गई है
ख़फ़ा ख़फ़ा, ज़ुदा ज़ुदा सी रहती थी
मुस्कुराते हुए अब पास हो गई  है 

मिली हर दफ़ा, पुकारा जब भी मैंने
मिलूँ फिर एक बार, यही चाह रह गई है
आग़ोश में कभी उसकी साँसों का बसेरा था
अब फ़क़त ख़ूबसूरत सी एहसास रह गई है

हाँफता भागता छू लेने की चाह लिए
साँसों की मिल्कियत फ़ना हो गई है
शामिल हुए भी नहीं, जाना था जिस सफ़र में
मंज़िल धूएँ में और सामने चौराह रह गई है

हुई मुद्दत कि तलाश में थे उसके
बिन मिले मोहब्बत बेपनाह हो गई है
कल मिली आख़िर, दूर महफ़िल के शोर से
पूछा नहीं हालेदिल, कमबख़्त बेपरवाह हो गई है

मिली क्या मौत से ज़िंदगी एक़बार

बड़ी बेख़ौफ़ बेबाक़ हो गई है......

Thursday, 5 September 2019


कुछ मसले कभी हल नहीं होते
दिल में कसक सी रह जाती है
बस माथे पे बल नहीं पड़ते

टूटता है बिखरता है 
फिर मचल पड़ता है
दिल की साज़िशों में ख़लल नहीं पड़ते 

रोटी कपड़ा मकान 
फ़ेहरिस्त में ये भी शामिल है 
मेरे ख़्वाबों में तुम ही हर पल नहीं रहते

जो रह गए गिले शिकवे
आओ आज अभी निपटा ले 
मेरे तारीख़ के पन्नो में कल नहीं रहते 

दिन के उजालों की
दोस्ती रही हमारी 
हम उनकी नींदों में दख़ल नहीं देते 

मिलते है जब भी
मुस्कुरा देते हैं यूँ ही
हम आज भी उनके ख़यालों में बसर नहीं करते 

बेपरवाह अंजाम से
फ़ैसला कर ही लेते हैं
हम अब जगहँसाई की फ़िकर नहीं करते

कुछ मसले कभी हल नहीं होते
दिल में कसक सी रह जाती है
बस माथे पे बल नहीं पड़ते