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Saturday, 29 September 2018

# मेरी बेबसी तेरा अहंकार#

कुछ बोल पड़ूँ,
तो कहते हैं ग़द्दार है
जब चुप रहूँ,
तो ज़ाहिर है लाचार है

बेज़ुबान तो हूँ नहीं,
लिए फिरता जज़्बात कई,
कुछ बोलने का हक़ कहाँ,
हर हर्फ़ मेरा बेज़ार है

प्यादे तेरे, वज़ीर भी तू,
चौखने से, बँधा मैं हूँ
तू जीत गया बाज़ी ये,
कहाँ मुझे इनकार है

ग़ुस्ताख़ी इन नज़रों की,
अब जाने दो छोड़ो भी,
सिर जो उठा होगा क़लम,
जानता हूँ तेरी सरकार है

ये ख़ामोशी, 
कुछ दिन और सही,
मेरी बेबसी में कोई दम नहीं,
तुझे ख़त्म करने के लिए,
काफ़ी तेरा अहंकार है







Tuesday, 25 September 2018

# तैयार हो ना ? #

अब बस,
हमारा सम्बंध,
यहीं होता
है ख़त्म ।
रात के इसी 
अन्तिम छोर से,
अब शुरू होगी
तुम्हारी ज़िंदगी की,
सुबह एक नई ।

तैयार हो ना ?

और फिर
एक झटके के साथ,
छुड़ा के हाथ,
वो हो गया विलुप्त,
पर गूँज रहा
अब भी वही सवाल,
तैयार हो ना ?

कैसी तैयारी ?
ज़िंदगी को जीने की,
या फिर मौत को पाने की,
जब काल ही होगा
मेरा पथ प्रदर्शक,
उसी के हाँथों में होगी,
बागडोर मेरे जीवन की,
हर क्षण हर पल,
पर होगा
नियंत्रण उसी का,
तो फिर क्या औचित्य है
मेरी तैयारी का ।

पर शायद
वो कह रहा हो,
कि तैयार हो जाओ,
बनने के लिए
एक अभिनेता कुशल,
कि होगा अभिनय अलग,
अब हर क्षण हर पल ।

कभी रोना,
तो कभी हँसना होगा,
कभी जीना झूठ का,
तो कभी सच का,
मरना होगा ।

अब हर पल,
होगा बदलना
स्वयं को,
होगा ढलना,
परिस्थितियों के
अनुरूप में,
तैयार हो जाओ,
कि अब तुम्हें
लेना है जन्म,
मनुष्य के रूप में ।


Saturday, 22 September 2018

# दोस्त मेरे #

दोस्त बने फिरते हो
मैं ख़ंजर नहीं रखता 
तुम क्यूँ ढाल रखते हो

संग सफ़र में चलते हो
मैं पंछी सा उड़ता हूँ
तुम क्यूँ जाल रखते हो

ठोकरों की बात करते हो
मैं दिल में दर्द रखता हूँ
तुम क्यूँ मलाल रखते हो

मेरी ज़िंदगी पे हँसते हो
मैं रोज़ नई राह ढूँढता हूँ
तुम क्यूँ सवाल रखते हो

Wednesday, 19 September 2018

# षड्यंत्र #

बस एक 
और षड्यंत्र 
और ईश्वर
की सत्ता भी ख़त्म ।

अब इस जहाँ,
एक यही तो 
है बचा,
जो कि
राहों में मेरे,
बिछाए जा रहा
है काँटे ।

हर नियम तो 
मैंने तोड़ डाले,
जीवन यज्ञ में
ख़ुद विघ्न डाले,
मुक्त कर दिया
ख़ुद को,
हर बन्धनों से,
जुड़े थे जो मुझसे, 
ना जाने कितने 
जन्मों से ।

पर मिटा नहीं
पा रहा,
इन निशानों को,
जो कि बना डाले
हैं उसने,
मेरी हथेलियों पे,
किए जा रहा
जितने भी जतन,
हुए जा रहीं
ये लकीरें,
उतनी ही सघन ।

ना जाने क्या बैर है
उसका मुझसे,
या डरा हुआ है,
मेरे निर्भीक प्रश्नों से,
कि हर चाल ईश्वर की,
मेरे ख़िलाफ़ ही रहती ।

जब भी सामने आयी 
मंज़िल ज़िंदगी की,
पलक झपकते
राह गुमा दिया ।
बिगुल जीत की,
गूँजने वाली ही थी,
बादलों बीच 
सूरज डुबो दिया ।

कुछ और 
अलग होगा,
इस बार 
मेरा यत्न,
वर्चस्व ईश्वर का,
मुझे 
करना ही है ख़त्म ।

अब आख़िरी है 
ये मेरा षड्यंत्र,
या तो ध्वंस होगा 
ईश्वर का अहम,
या बिखरेगा फिर से,
टूट कर मेरा भ्रम ।










Saturday, 15 September 2018


# मैं #


शिखर का दम्भ नहीं भरता हूँ,

मैं आसमान में ही रहता हूँ ।
पंखों की होगी तुम्हें ज़रूरत,
मैं ख़्वाबों के दम पे उड़ता हूँ ।

पुष्प-सितारे, समेट लो तुम सारे,

मैं अग्नि ज्वाल माल से सजता हूँ ।
रहे दहकता सूरज भर दिन,
मैं सीने की आग में जलता हूँ ।

लोक लाज सब तज आया,

जो दिल में है वही कहता हूँ ।
तुम अश्रु बिंद छुपाए फिरते हो,
मैं श्रावण मेघ सा बरसता हूँ ।

संगमरमर महलों वाले,

क़ब्रों पे भी है चिपके हैं ।
करके नभ को नाम अपने,
मैं नीड़ तिनकों से बुनता हूँ ।

बाट जोहते तुम जुगनुओं की,

मैं उजाले संग लिए चलता हूँ ।
चाहत किरणों की होगी तुमको,
मैं अपनी रौशनी में दमकता हूँ ।

क्षण भंगुर, सब काल आसरे,

कहाँ मैं सर्व नाश से डरता हूँ ।
साथ सफ़र में कोई नहीं अब,
मैं अपनी ही धुन में रहता हूँ ।









Tuesday, 11 September 2018

# बेमानी है इंतज़ार #

इस रात के बाद
आयेगी एक सुबह,
जानता हूँ मैं,
क्यूँ फिर रातों को
आँखों में बिता,
उस सुबह का इंतज़ार हो ।

कौन सी बात,
वह प्रभात,
बता जाएगा मुझे,
क्या जाने
उस भोर क्षितिज,
ढका हो बादलों से ।

और फिर,
किसे ख़बर,
यही प्रहर,
बता जाए
हर बात,
और बेमानी हो जाए
यह इंतज़ार ।

कई साल 
बाक़ी थे,
उसके आने में,
अब बस
यह रात  बची है,
पूरी ज़िंदगी के 
अंधेरे जी लिए,
यूँ ही इस सुबह के
इंतज़ार में,
ऐसे की जैसे
गुज़रती है ज़िंदगी,
टकटकी लगाए
आसरे में मौत के ।

लो आ गई,
वह सुबह भी,
पर यह क्या,
साथ तो इसके
मौत है,
अब कहाँ मैं,
छूपूँ जा के,
कहीं माँग ना ले पूरा,
अपनी ज़िंदगी का ब्योरा,
कहूँगा क्या,
कि पूरी ज़िंदगी
काट दी ऐसे ही,
इंतज़ार में,
सुबह और मौत के ।

और सुबह ने
जब ये बात सुनी,
क्रोधित नहीं
वह हँस पड़ी,
कहा,क्यूँ करते हो
प्रतीक्षा उस की,
आना हीं है
जिसे एक दिन ।

तुम्हारे निमंत्रण की
कोई दरकार नहीं है
आग्रह भी मुझे
स्वीकार नहीं है
भोर हूँ मैं, हठ नहीं,
आऊँगी स्वयं,
किसी मनुहार का 
मुझे इंतज़ार नहीं है ।








Sunday, 9 September 2018

# दिवालिया दिल # 

तुझसे मिल के भी
उदास है ये दिल
ना जाने किसके
तलाश में है ये दिल

पा के भी तुझ को
बेक़रार है ये दिल
ना जाने किसके
फ़िराक़ में है ये दिल

टूटे हुए दिल से
गूँज रही सदा
ना जाने किसके
आस में है ये दिल

ढूँढता फिर रहा
पहलू में दिल को अपने
ना जाने किसके
पास में है ये दिल

टिकती नहीं नज़र
किसी चेहरे पे पल भर
ना जाने किसके
प्यास में है ये दिल

मेरी हर गुज़ारिशें
नज़रंदाज हो रहीं
ना जाने किसके
साथ में है ये दिल 

Thursday, 6 September 2018

# कृष्णा घाट #
# कॉलेज की शाम #

फिर इस शाम मुझे
वह शाम याद आ गई,
जब बैठा अकेला
पत्थरीली सीढ़ियों पे,
उस पार निहारा
करता था ।

डूबते
सूरज से
टपकता लहू,
जब तैरता
नदी के सिने पे,
देखता था मैं भी
शक्ल अपनी,
खड़ा किनारे
उस आइने में ।

क़दम बरबस
चल पड़ते थे,
सीढ़ियों से टकराती
मौज़ों को छूने,
लहरों को 
उँगलियों से सहलाके,
करता था उनकी फाँकें,
बनाता था 
चेहरे अनजाने,
बूँदे टपका
आधे डूबे
पत्थरों पे ।

और फिर
एक धुन हल्की,
मुझे ख़ुद तक
खींच लाती,
और चल पड़ता मैं,
दूर कही उन
पथरीली सीढ़ियों से ।

पर अफ़सोस 
कि आज तक,
उस शाम से
इस शाम तक,
न ढूँढ सका
उस अधर को,
उस बाँसुरी को,
धुन जिसकी
है बेचैन करती, 
मुझे आज भी ।

Tuesday, 4 September 2018

#ललचाती फिसलती ज़िंदगी#

जलते शब्द
सिकुड़ते पन्ने,
पल पल जिसे 
सहेज रखा था,
राख हुआ जाता
यह जीवन

बिखरे हुए 
सपनों को समेटूँ,
या बाँधूँ 
टूटे ख़्वाबों को,
दो हाँथों से 
थामूँ कैसे,
तार तार 
मेरा ये दामन

नज़र धूँधली 
हुई जाती है,
स्वर पहुँचते 
नहीं है मुझतक,
पलकें भिंगी
झुकीं हुई हैं,
चीख़ रहा है
अंतर्मन

ललचा चिढ़ा 
रही है ज़िंदगी,
फुसला के,
पास बुला रही
है मौत भी,
वक़्त फिसलता
जा रहा,
हथेलियों से
रेत सा

वर्तमान गुम गया
अतीत में,
अंधकार में
छुपा है कल,
भाग रहा
सायों के पीछे,
मन चंचल 
है हृदय विकल

उलझे हुए
राहों से हो कर,
अर्थ हीन खोज
मंज़िल की,
अंधेरे में
स्पर्श हुआ जो,
लक्ष्य माना
है उसी को

भ्रम के इस
मायाजाल से,
प्रकृति के
चंचल स्वभाव से,
अधीर हुआ
जाता है मन,
फिर भी ना जाने
जीने की ललक,
ख़त्म नहीं
होती है क्यूँ ,
आकर्षण संसार का,
बढ़ता ही चला
जाता है ।

            (2004)

Sunday, 2 September 2018

#ख़ुद देख लो आ कर#

मैं कैसे गिनाऊँ
उन पलों को
जिनमें तुम्हें
देखता रहा, अपलक
चाँद के फ़लक पर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
धड़क रहे हैं
अभी भी वो पल
सितारे बन कर

मैं कैसे कहूँ
तेरी याद में
इन आँसुओं ने
कितने शाम मेरे
धुँधले कर दिए
रख दिया कितनी
रातों को भिगो कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
चमक रहे हैं
अभी भी वे आँसू
शबनम बन कर

मैं कैसे बताऊँ
कि तनहाइयों में
भटका ढूँढने को तुझे
किस क़दर
कभी चुप सा
मन हो जाता 
कभी चिल्लाता 
इन विरानियों में
तेरा नाम ले कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद सुन लो आ कर
सदा गूँज रही
मेरी आज भी
ख़ामोशियों से टकराकर

मैं कैसे दिखाऊँ
दर्द अपने
जो तेरी 
बेरुख़ी ने दिए
वक़्त की गर्द में
दफ़नाना चाहा 
जब भी उन्हें
गुज़रती हवाओं ने
रख दिए कुरेद कर
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
रिस रहे हैं
आज भी वो ज़ख़्म
नासूर बन कर

मैं कैसे तोड़ूँ
वो क़समें तेरी
बँधी है जिससे 
ये ज़ुबा मेरी
सुनाऊँ किस तरह 
आवाज़ उन
बेड़ियों की
रख दिए है जिसने
मेरे क़दमों को
जकड़कर 
यक़ीं नहीं तो
ख़ुद देख लो आ कर
गड़ी हैं आज भी
पाबंदियाँ वे
दिल की ताबूत में 
कील बन कर