#कश्मीर#
पोपलर के पेड़ से पनपती,
पहले प्यार सी पत्तियाँ ।
चिनार फैलाए बाँह,
ढकती सारी आपत्तियाँ ।
बर्फ़ की चादर में लिपटी,
कांगड़ी की ताप में तपती,
विस्तता* के विस्तार में,
सिमटी अनगिनत जिंदगियाँ ।
फैली मख़मली घांस हरी,
ग़लीचे से वादियों को ढकी,
चश्मों से झरती धार सफ़ेद,
बहा ले जाती सारी विपत्तियाँ ।
बाग़ थे बहार थी,
रेशम के धागों को बुनने,
ऊँगलियाँ तैयार थी।
होंठ थे गुनगुनाते,
कहानियाँ प्यार की,
उलझते ज़ुल्फ़ बयां करते,
अठखेलियाँ बयार की ।
उन्ही हाथों में अब,
मौत का सामान है,
नज़र उगलते ज़हर,
जुबाँ पे क़त्ल का पैग़ाम है ।
मंदिर की घंटियां चुपचाप हैं,
सीढ़ियाँ, सुनसान है शमशान सी
मस्जिदों की मीनारों से गूँजती,
कुछ तल्ख़ है आवाज़ अज़ान की ।
सूफ़ियाना गीत ग़ज़ले,
हैं दर बदर हैरान सी,
वाहबियों के बीच कश्मिरियत,
कराहती बेज़ान सी ।
अब काफ़िर क़रार हो चली,
पीर की मज़ार भी,
राँझे को नगुज़वार है,
हीर की ग़ुहार भी ।
इंतहा अब कहीं भी नहीं,
तेरे, मेरे, सबके सब्र की।
केसर की मेढ़े क़तार में,
अब दिखती हैं क़ब्र सी ।
निगाहें ढूँढती है आज़ादी,
किनारों से हिजाब के ।
बोल होंठों से निकलते,
अब तौल के हिसाब से ।
ज़िहादी हो चली ज़िंदगी अब,
सुकून की तलाश में ।
मेरी कैफ़ियत संग है बची,
सिर्फ़ ज़ुनून बिखरती साँस में ।
कहीं से फिर लौट आएगा,
बहारों का वो कारवाँ ।
बुदबुदा रहीं है अब तक
धड़कने इसी आस में ।
*झेलम नदी*