#पिता-सुता#
क्यूँ उसके
युवा यक़ीन को,
अपने अनुभवों से
मात दूँ,
उसके सच की उम्र,
ज़्यादा बची नहीं अब,
पर ख़ुद को फुसलाते,
लगता है कुछ दूर
और साथ दूँ ।
मेरा अक़्स
दिखता है उसमें,
जब भी बोलती है
वह तान भवें,
गर्दन की अकड़न
भी ठीक वैसी ही है,
अभी आदर्श उसके
मिलावटी नहीं हुए ।
डरता हूँ
उस दिन से,
जब लगेगी
पहली ठोकर,
क्या संभल पायेगी
वो ख़ुद से,
या गिर पड़ेगी
लड़खड़ाकर ।
समझ में आता नहीं,
छोड़ूँ हाथ उसका
किस मुक़ाम पर
या साथ चलता रहूँ
शाम के साये की तरह,
छुप छुपाकर ।
मेरा अंश है वो,
उसकी आशाओं का
ध्वंस नहीं देख सकता,
पिता हूँ,
सुता के ख़ातिर
मैं तटस्थ नहीं रह सकता ।