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Tuesday, 11 September 2018

# बेमानी है इंतज़ार #

इस रात के बाद
आयेगी एक सुबह,
जानता हूँ मैं,
क्यूँ फिर रातों को
आँखों में बिता,
उस सुबह का इंतज़ार हो ।

कौन सी बात,
वह प्रभात,
बता जाएगा मुझे,
क्या जाने
उस भोर क्षितिज,
ढका हो बादलों से ।

और फिर,
किसे ख़बर,
यही प्रहर,
बता जाए
हर बात,
और बेमानी हो जाए
यह इंतज़ार ।

कई साल 
बाक़ी थे,
उसके आने में,
अब बस
यह रात  बची है,
पूरी ज़िंदगी के 
अंधेरे जी लिए,
यूँ ही इस सुबह के
इंतज़ार में,
ऐसे की जैसे
गुज़रती है ज़िंदगी,
टकटकी लगाए
आसरे में मौत के ।

लो आ गई,
वह सुबह भी,
पर यह क्या,
साथ तो इसके
मौत है,
अब कहाँ मैं,
छूपूँ जा के,
कहीं माँग ना ले पूरा,
अपनी ज़िंदगी का ब्योरा,
कहूँगा क्या,
कि पूरी ज़िंदगी
काट दी ऐसे ही,
इंतज़ार में,
सुबह और मौत के ।

और सुबह ने
जब ये बात सुनी,
क्रोधित नहीं
वह हँस पड़ी,
कहा,क्यूँ करते हो
प्रतीक्षा उस की,
आना हीं है
जिसे एक दिन ।

तुम्हारे निमंत्रण की
कोई दरकार नहीं है
आग्रह भी मुझे
स्वीकार नहीं है
भोर हूँ मैं, हठ नहीं,
आऊँगी स्वयं,
किसी मनुहार का 
मुझे इंतज़ार नहीं है ।








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