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Wednesday, 19 September 2018

# षड्यंत्र #

बस एक 
और षड्यंत्र 
और ईश्वर
की सत्ता भी ख़त्म ।

अब इस जहाँ,
एक यही तो 
है बचा,
जो कि
राहों में मेरे,
बिछाए जा रहा
है काँटे ।

हर नियम तो 
मैंने तोड़ डाले,
जीवन यज्ञ में
ख़ुद विघ्न डाले,
मुक्त कर दिया
ख़ुद को,
हर बन्धनों से,
जुड़े थे जो मुझसे, 
ना जाने कितने 
जन्मों से ।

पर मिटा नहीं
पा रहा,
इन निशानों को,
जो कि बना डाले
हैं उसने,
मेरी हथेलियों पे,
किए जा रहा
जितने भी जतन,
हुए जा रहीं
ये लकीरें,
उतनी ही सघन ।

ना जाने क्या बैर है
उसका मुझसे,
या डरा हुआ है,
मेरे निर्भीक प्रश्नों से,
कि हर चाल ईश्वर की,
मेरे ख़िलाफ़ ही रहती ।

जब भी सामने आयी 
मंज़िल ज़िंदगी की,
पलक झपकते
राह गुमा दिया ।
बिगुल जीत की,
गूँजने वाली ही थी,
बादलों बीच 
सूरज डुबो दिया ।

कुछ और 
अलग होगा,
इस बार 
मेरा यत्न,
वर्चस्व ईश्वर का,
मुझे 
करना ही है ख़त्म ।

अब आख़िरी है 
ये मेरा षड्यंत्र,
या तो ध्वंस होगा 
ईश्वर का अहम,
या बिखरेगा फिर से,
टूट कर मेरा भ्रम ।










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