# कृष्णा घाट #
# कॉलेज की शाम #
फिर इस शाम मुझे
वह शाम याद आ गई,
जब बैठा अकेला
पत्थरीली सीढ़ियों पे,
उस पार निहारा
करता था ।
डूबते
सूरज से
टपकता लहू,
जब तैरता
नदी के सिने पे,
देखता था मैं भी
शक्ल अपनी,
खड़ा किनारे
उस आइने में ।
क़दम बरबस
चल पड़ते थे,
सीढ़ियों से टकराती
मौज़ों को छूने,
लहरों को
उँगलियों से सहलाके,
करता था उनकी फाँकें,
बनाता था
चेहरे अनजाने,
बूँदे टपका
आधे डूबे
पत्थरों पे ।
और फिर
एक धुन हल्की,
मुझे ख़ुद तक
खींच लाती,
और चल पड़ता मैं,
दूर कही उन
पथरीली सीढ़ियों से ।
पर अफ़सोस
कि आज तक,
उस शाम से
इस शाम तक,
न ढूँढ सका
उस अधर को,
उस बाँसुरी को,
धुन जिसकी
है बेचैन करती,
मुझे आज भी ।
# कॉलेज की शाम #
फिर इस शाम मुझे
वह शाम याद आ गई,
जब बैठा अकेला
पत्थरीली सीढ़ियों पे,
उस पार निहारा
करता था ।
डूबते
सूरज से
टपकता लहू,
जब तैरता
नदी के सिने पे,
देखता था मैं भी
शक्ल अपनी,
खड़ा किनारे
उस आइने में ।
क़दम बरबस
चल पड़ते थे,
सीढ़ियों से टकराती
मौज़ों को छूने,
लहरों को
उँगलियों से सहलाके,
करता था उनकी फाँकें,
बनाता था
चेहरे अनजाने,
बूँदे टपका
आधे डूबे
पत्थरों पे ।
और फिर
एक धुन हल्की,
मुझे ख़ुद तक
खींच लाती,
और चल पड़ता मैं,
दूर कही उन
पथरीली सीढ़ियों से ।
पर अफ़सोस
कि आज तक,
उस शाम से
इस शाम तक,
न ढूँढ सका
उस अधर को,
उस बाँसुरी को,
धुन जिसकी
है बेचैन करती,
मुझे आज भी ।
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