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Tuesday 4 September 2018

#ललचाती फिसलती ज़िंदगी#

जलते शब्द
सिकुड़ते पन्ने,
पल पल जिसे 
सहेज रखा था,
राख हुआ जाता
यह जीवन

बिखरे हुए 
सपनों को समेटूँ,
या बाँधूँ 
टूटे ख़्वाबों को,
दो हाँथों से 
थामूँ कैसे,
तार तार 
मेरा ये दामन

नज़र धूँधली 
हुई जाती है,
स्वर पहुँचते 
नहीं है मुझतक,
पलकें भिंगी
झुकीं हुई हैं,
चीख़ रहा है
अंतर्मन

ललचा चिढ़ा 
रही है ज़िंदगी,
फुसला के,
पास बुला रही
है मौत भी,
वक़्त फिसलता
जा रहा,
हथेलियों से
रेत सा

वर्तमान गुम गया
अतीत में,
अंधकार में
छुपा है कल,
भाग रहा
सायों के पीछे,
मन चंचल 
है हृदय विकल

उलझे हुए
राहों से हो कर,
अर्थ हीन खोज
मंज़िल की,
अंधेरे में
स्पर्श हुआ जो,
लक्ष्य माना
है उसी को

भ्रम के इस
मायाजाल से,
प्रकृति के
चंचल स्वभाव से,
अधीर हुआ
जाता है मन,
फिर भी ना जाने
जीने की ललक,
ख़त्म नहीं
होती है क्यूँ ,
आकर्षण संसार का,
बढ़ता ही चला
जाता है ।

            (2004)

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