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Thursday 16 August 2018


#ईश्वर और मैं#

अपने ही बुने
जाल में
फँसा जा रहा हूँ
खेलने को जो 
बनाए थे फंदे
उनमें ही कसा जा रहा हूँ

ईश्वर की तरह
कि बनाई थी
जिसने दुनिया
अपने मनोरंजन के लिए
और सजाया था जिसे
विदुषकों से
ख़ुद बैठा ऊपर
बन निर्देशक
धागों को 
हाथों में थाम
ख़ुश था देख
कठपुतलियों का नाच

वह बे फ़िकर 
बैठा रहा ऊपर
धागे नीचे
गुथने लगे
एक जाल सा
बुनने लगे
फिर कब अलग हुई
उन धागों से मूर्तियाँ
सर्वज्ञ को पता ही न चला
उसके हाथों में सिर्फ़
एक जाल रह गया

अब वे कठपुतलियाँ 
नाचतीं है
औरों के इशारे पे
और ईश्वर बेचारा 
उलझा हुआ है 
बेबसी के जालों में

सबसे बड़ा विदूषक
वह ख़ुद बन गया है
अलग अलग दर्शकों
के सामने
अलग अलग अभिनय
कर रहा है
मेरी तरह
जिसने ज़िंदगी को
एक नाटक बनाया
और पात्र 
अपने चाहने वालों को

अब वो चाहत
बदल रही नफ़रत में
अलग अलग रूप
बन रहा मेरा
अलग अलग नज़रों में
ईश्वर की तरह.....

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