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Thursday 9 August 2018

# भीड़ का समन्दर #

भीड़ थी वो, बदहवास,
माँगता रहा सहारा जिससे,
वो समन्दर था, बेपरवाह,
ढूँढता रहा किनारा जिसमें

ना शक्ल ना संवेदना,
अनियंत्रित आक्रोश था
ना ठहराव ना रवानगी,
लहरों का मचलता जोश था

चरित्र ख़ुद का गँवा आया,
भीड़ के सामूहिक आचरण में
अमृत बूँदे विषाक्त हो गईं,
अबकी बार समुद्र  मंथन में

दरिंदगियत क्या दर्द जाने,
अनजान बन गए रिश्ते पुराने
गिरे गहराइयों में इस क़दर,
लचर लहरों ने दम तोड़ा किनारे

दोष किसका, अब क्या कहूँ,
इल्ज़ाम, किस चेहरे पे धरूँ
नदी की धार हो, तो बाँध बाँधूँ,
विस्तार सागर का, भला कैसे थामूँ

          

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