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Saturday 25 August 2018

#उधारी ज़िंदगी#

मैंने कब कहा
ये ज़िंदगी
है मेरी ।
छोड़ गए थे
मेरे पास,
तो जी रहा था
बदहवास ।

मैंने कब कहा
कि ये खिलौने,
ये आँसू, ये हँसी
ये ग़म, ये ख़ुशी,
हैं मेरे
तू सौंप गया था
तो खेल रहा था ।

और जब आज
तुम रहे हो माँग
अपनी ज़िंदगी,
मैं कैसे दे दूँ
ऐसे हीं ।
कैसे दे दूँ
वे क्षण, वे पल,
जिन्हें जिया
अपना समझ,
कैसे दे दूँ
वे कोमल सपने,
वे नाज़ुक भावनाएँ,
जो चिपकी है
इस ज़िंदगी से ।

हाँ अगर कर सको
इन्हें अलग,
तो ले लो बेशक,
ज़िंदगी अपनी
पर लौटा दो मुझे
वो हिस्सा,
जो मेरे आँसुओं से
है भीगा ।

लौटा दो वे फूल
जो हैं खिले
मेरी मुस्कुराहट से,
लौटा दो वे काँटे
लड़खड़ाते क़दमों को मेरे,
कई बार संभाले जिसने।

लौटा दो वो मंज़र,
जब उस पे थी पड़ी
मेरी पहली बार नज़र,
जब चाहा था उसे
बेक़रार हो दिल ने,
जब लिया था नाम
उसने मेरा
मुस्कुरा के,
पलकें झुका के ।

जब पहली बार 
गिरा था मैं,
अपनी नज़रों में,
ढुलका था
पहली बूँद अश्क़ का
पलकों  से ।
चुपचाप ढल गया
था आसमान से,
जब मिलायी थी
आँखें सूरज से ।
लौटा दो वो रातें मेरी
जो जागते हुए कटी,
लौटा दो वो सुबह
जब पहली बार
मेरी हँसी गूँजी ।

लौटा दो वो सपने,
जो जागती 
आँखों से देखे,
लौटा दो वो
पन्ने सारे
ज़िंदगी के,
जो मैंने अपनी
साँसों से लिखे ।

जब तुम दे नहीं सकते,
मेरी अंगिनित अमानतें,
तो भला मैं,
लौटा दूँ कैसे,
तुम्हारी एक ज़िंदगी ।

(1997)








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