#रात चाँद निगल गई#
चाँद को निकलते देखा
बादलों को चीर के
रख दिया था रक्त का रंग
आसमां में बिखेर के
चाँदनी में थी नहाई
हर डगर हर फ़िज़ा
शाम थी घबराई सी
रात थी ख़फ़ा ख़फ़ा
रात और चाँद बीच
द्वन्द था अधिकार का
रौशनी सा बिखर गया
ख़ौफ़ अंधकार का
टिमटिमाते तारों ने भी
चाँद को दी थी चुनौती
दाग़ चेहरे का दिखा के
उसी रौशनी में ख़ुद नहाती
रात भर रात से लड़ता रहा
इंतज़ार में भोर के दमकता रहा
अब चाँद अकेला थक चुका
क्षितिज पे शिथल धूमिल पड़ा
चाँदनी भी अब छोड़ चली
ना जाने किस आग़ोश गई
सो गया चाँद भी मूँद आँखें
आख़िरी किरण अब डूब चली
सब की नज़रों से छुपाके
अंधेरे को काजल बता के
उजाले स्याह कर गई
रात चाँद निगल गई
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