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Tuesday, 21 August 2018

#प्रहरी#

सर्द रात 
भीगी ज़मीं
ओस की 
बारिश को थामे
झूमते ये
पेड़ सारे
धूँध की चादर
को ओढ़े
कंपकंपा रही हवायें

फिर भी खड़ा
वो नज़रों को जमाए
सुन रहा
हर एक आहट
गरम कंबल 
की सिलवटों में
लेट नहीं सकता
वो पल भर
रौशनी होने न पाए
आग भला कैसे जलाए
जान जाएगा दुश्मन
कि खड़ा है वो यहाँ पर

अनजाने अपरिचित का भय
अंधेरे में भी
ढूँढ लेती है चेहरे
सुन लेती है
आहटें क़दमों की
हवायें जब खड़खड़ातीं
है पत्तियों को

और भला किसे मोह है
कौन चाहता है
सिलवटों में लिपटी
गर्माहट को
कि ना जाने
कौन सी 
सरकती पत्तियों में
मौत की आहट हो


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